Sunday, June 8, 2014

जिंदगी

जिंदगी नाराज हो सकती है, निष्ठूर नहीं
जिंदगी देर हो सकती है, चुकती नहीं
जिंदगी आती है
पर कभी सीधे रास्ते नहीं आती
उस राह नहीं आती
जिस राह हम टकटकी लगाए होते हैं
पर जिंदगी आती है

जिंदगी आती है
टेढ़ी-मेढ़ी पगडंडियों से
जिंदगी आती है
पिछवाड़े से
और थपथपा कर हमें चौंका देती है
पर जिंदगी आती है
जरुर आती है

जिंदगी आती है
रात के सन्नाटे में
बिना दस्तक दिए
नींद के आगोश से झकझोर हमें डराती है
पर गले भी लगाती है
जिंदगी आती है

जरुर आती है...................।

क्या फर्क पड़ता है....

क्या फर्क पड़ता है
लोगों के तरकश से
मेरे लिए कितने भी तीर निकलें
क्या फर्क पड़ता है इनसे
जब मैं निहत्थी खड़ी हूं
अपनी ही अंतरात्मा के सामने 
अपने ही प्रश्नों का बौछार झेलती
इनकी चुभन से कहीं भी ज्यादा नहीं है
उनके वाणों की चुभन
फिर क्या फर्क पड़ता है
लोगों के तरकश से कितने भी तीर निकलें

जब मैं निहत्थी खड़ी हूं
अपनी ही अंतरात्मा के सामने
सबसे उदासीन
एक बेचैनी से घिरी
स्वयं की तलाश में
....जिंदगी से लबरेज स्वयं
एक अर्थ में लिपटी जिंदगी....
फिर क्या फर्क पड़ता है
लोगों के तरकश से कितने भी तीर निकलें

बस एक क्षीण सी आशंका है
कहीं अपनी ईमानदारी से चुक न जाऊं
कहीं दुनियावी भटकनों में गुम न जाऊं
पर इस उदास सी बेचैनी में बहुत शक्ति है
इन आशंकाओं को निर्मूल करने में
वैसे तो यह बेचैनी बहुत दर्द देती है
पर यह निष्कलंक है, अनमोल है
इस बेचैनी के लिए तुम्हें शुक्रिया
फिर क्या फर्क पड़ता है
लोगों के तरकश से कितने भी तीर निकलें........................।