Sunday, June 8, 2014

क्या फर्क पड़ता है....

क्या फर्क पड़ता है
लोगों के तरकश से
मेरे लिए कितने भी तीर निकलें
क्या फर्क पड़ता है इनसे
जब मैं निहत्थी खड़ी हूं
अपनी ही अंतरात्मा के सामने 
अपने ही प्रश्नों का बौछार झेलती
इनकी चुभन से कहीं भी ज्यादा नहीं है
उनके वाणों की चुभन
फिर क्या फर्क पड़ता है
लोगों के तरकश से कितने भी तीर निकलें

जब मैं निहत्थी खड़ी हूं
अपनी ही अंतरात्मा के सामने
सबसे उदासीन
एक बेचैनी से घिरी
स्वयं की तलाश में
....जिंदगी से लबरेज स्वयं
एक अर्थ में लिपटी जिंदगी....
फिर क्या फर्क पड़ता है
लोगों के तरकश से कितने भी तीर निकलें

बस एक क्षीण सी आशंका है
कहीं अपनी ईमानदारी से चुक न जाऊं
कहीं दुनियावी भटकनों में गुम न जाऊं
पर इस उदास सी बेचैनी में बहुत शक्ति है
इन आशंकाओं को निर्मूल करने में
वैसे तो यह बेचैनी बहुत दर्द देती है
पर यह निष्कलंक है, अनमोल है
इस बेचैनी के लिए तुम्हें शुक्रिया
फिर क्या फर्क पड़ता है
लोगों के तरकश से कितने भी तीर निकलें........................।


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