भावनाओं के बवंडर को धकेल
कोशिश है छलांग लगा लूं
उस दरिया में, जिसमें पानी नहीं,
है एक अनंत प्रकाश
पर शाम ढ़लती नहीं
सूरज डूबता नहीं
जिंदगी अटकी पड़ी है न जाने कब से
इस गोधूली बेला में....।
मन का चातक कुलांचे मार
जब थक जाता है
तो मौन आत्मा मुखर हो बोलती है
आ चल आगे बढ़ प्रवेश करें
उस निविड़ अंधकार में
जहां खुलती हैं अंतर्दृष्टि की पलकें
पर शाम ढ़लती नहीं....
मोह मान के धागे सब चिटक रहे हैं
दुनियावी चकाचौंध से हम भटक रहे हैं
आंखें हैं टकटकी लगाए अस्ताचल की ओर
पर मायावी दुनिया ने
नेह का है एक एेसा प्रपंच रचा
जो सुलझते-सुलझते ऐसे उलझ सी जाती है
कि शाम ढ़लती नहीं....
न जाने ये कैसी गोधूली बेला है
चारों प्रहरों से लंबी
है मेरे सामने अपलक खड़ी
भोर की चंद स्मृतियां संजोये
और दोपहर की कुछ आपाधापी
जो नहीं होने देता विस्मृत
इस जीवन बोध से....
यह बोधमय, यह भावमय बवंडर
संभाले नहीं संभलता
पर करें भी तो क्या करें
कि शाम ढ़लती नहीं
सूरज डूबता नहीं
जिंदगी अटकी पड़ी है न जाने कब से
इस गोधूली बेला में....।(मार्च, 2017)
कोशिश है छलांग लगा लूं
उस दरिया में, जिसमें पानी नहीं,
है एक अनंत प्रकाश
पर शाम ढ़लती नहीं
सूरज डूबता नहीं
जिंदगी अटकी पड़ी है न जाने कब से
इस गोधूली बेला में....।
मन का चातक कुलांचे मार
जब थक जाता है
तो मौन आत्मा मुखर हो बोलती है
आ चल आगे बढ़ प्रवेश करें
उस निविड़ अंधकार में
जहां खुलती हैं अंतर्दृष्टि की पलकें
पर शाम ढ़लती नहीं....
मोह मान के धागे सब चिटक रहे हैं
दुनियावी चकाचौंध से हम भटक रहे हैं
आंखें हैं टकटकी लगाए अस्ताचल की ओर
पर मायावी दुनिया ने
नेह का है एक एेसा प्रपंच रचा
जो सुलझते-सुलझते ऐसे उलझ सी जाती है
कि शाम ढ़लती नहीं....
न जाने ये कैसी गोधूली बेला है
चारों प्रहरों से लंबी
है मेरे सामने अपलक खड़ी
भोर की चंद स्मृतियां संजोये
और दोपहर की कुछ आपाधापी
जो नहीं होने देता विस्मृत
इस जीवन बोध से....
यह बोधमय, यह भावमय बवंडर
संभाले नहीं संभलता
पर करें भी तो क्या करें
कि शाम ढ़लती नहीं
सूरज डूबता नहीं
जिंदगी अटकी पड़ी है न जाने कब से
इस गोधूली बेला में....।(मार्च, 2017)
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