Tuesday, September 17, 2013

प्रश्न


मेरे इर्द-गिर्द आजकल
तैरते हैं प्रश्न बहुतेरे
कुछ इसके, कुछ उसके
मेरे ही अपनों के

क्यों उद्वेलित हूं मैं
क्यों मैं बार-बार कहती हूं....
मेरे कदमों तले एक रेगिस्तान चल रहा है
दुपहरी की धूप से तपता रेगिस्तान
क्यों मेरी आंखों में तैरता है
एक शून्य
क्यों मेरे शब्दों में पसरी है
एक खामोशी
क्यों मेरी मुस्कान है सिमटी-सिमटी सी
आखिर क्यों...?
वह भी केवल कुछ लम्हों के कारण.....
आखिर क्यों...?

कुछ पलों की ही तो थी वह कहानी
फिर इतनी तड़प क्यों...?
आखिर क्यों...?

पर मेरे प्रियजनों
कुछ मेरी भी सुन लो....
मुझे ला दो वह तराजू
जिस पर भावों को तौल सकूं
ला दो वह पैमाना
जिससे नाप सकूं गहराई
संवेदनाओं की
क्या ला सकते हो.....नहीं ना

नहीं ला सकते
क्योंकि संवेदनाएं नहीं होती
घड़ी और कैलेण्डर की मोहताज
संवेदनाएं नहीं बंधी हैं
'आयामों' के दायरे में
वह तो बस एक क्षण से उपजती है
एक शिद्दत भरे क्षण से............

क्षणों की ही तो उपज थी सिद्धा्र्थ से तथागत तक की यात्रा
सिद्धार्थ ने भी देखा था
एक बार ही/ एक पल के लिए ही
एक रोगी को,
एक वृद्ध को,
एक मृत को,
और संवेदनाओं से वशीभूत
रुपान्तरित हो चले थे बुद्ध में....


संवेदनाएं हैं तो
मैं, मैं हूं...तुम, तुम हो...
संवेदनाएं हैं तो
हम मनुष्य हैं
संवेदनाएं हैं तो...संभावनाएं हैं
शुन्य से बुद्धत्व तक



मेरे प्रियजनों मत पूछो ऐसे प्रश्न.....!

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