हम इतने सयाने क्यों हैं
हम थोड़े से पागल क्यों नहीं....?
क्यों हैं हम हिस्सा
इस सयानी भीड़ का...
जो सयानेपन में हर वक्त को तोलती है,
नफ़ा-नुकसान की तराजू पर।
समझ के दायरे से परखती है,
सीढ़ियां चढ़ रही हवाओं के रुख को।
हासिल क्या होता है
एक बेचैनी....
पर यह बेचैनी वह नहीं
जिसमें कुछ नूतन का आग़ाज हो...
जो किसी सृजन का आधार हो
यह तो वह बेचैनी है
जिसमें मन तड़पता है
आत्मा रोती है.... !
हम इतने सयाने क्यों
कि जिंदगी की सोंधी गंध भूल जाएं
भूल जाएं कि....
हमारे अंदर का बच्चा,
अभी भी तैराना चाहता है
बारिश के पानी में काग़ज की कश्ती।
हमारे अंदर की मासूमियत,
अब भी दौड़ना चाहती है
बेतरतीब नंगे पांव
ओस से सने दूब घास पर।
पर हमारा सयानापन हमें रोकता है... !
हम इतने सयाने क्यों हैं..
हम थोड़े से पागल क्यों नहीं.... ?
क्यों हमें लगता है चांद सारी रात
अंबर के आगोश में रहता है
अगर समझ को परे धकेल
किसी एक रात
चुपके से खिड़की पर बैठ
इंतजार किया होता तो
जरूर दिखता
चांद धरती पर उतरते हुए... !
क्यों हमें लगता है..
हम मजबूर हैं,
हवाओं के रुख के साथ चलने को।
अगर कुंठित समझ को छिटक,
किसी एक रात
चुरा लाते उन परियों के पंख,
जो तैरती हैं एक शिशु की बंद आंखों में
खुली किताबों में....
तो जरूर उड़ पाते हवाओं के विपरीत।
क्योंकि, शिशु की मासूम निडरता
है दुनिया की सबसे बड़ी ताकत.... !
बस इसे समझने के लिए चाहिए
थोड़ा सा पागलपन
मुझे तलाश है
उस पागलपन का.... !