कितने वसंत बीत चुके
तुम आते रहे
पर मैंने नहीं पहचाना.....
अनगिनत रुपों में
अनगिनत छटाओं में
मौसम के हर एक करवट के साथ
तुम आते रहे
पर मैंने नहीं पहचाना......
तुम आते रहे मेरी हर एक सोच के साथ
तुम आते रहे मेरी कामनाओं में
तुम आते रहे मेरी व्यथाओं में
पर मैने नहीं पहचाना......
आज भी तुम आते हो
मेरे सपनों में
कई-कई संकेतों में
कुछ प्यारे-प्यारे चेहरों में
और सबसे बढ़कर उनमें
पर देर हो जाती है
जब तक मैं पहचान पाऊं तुम्हें......
तभी तो मन व्याकुल सा है
और है एक बेचैनी
नहीं मिट पाती वह अंतर्वेदना
तुम्हारे होते हुए भी......
पहचान पाऊं तुम्हें मैं,
तत्क्षण ही
प्रभु मेरे,
मुझे वह अंतर्दृष्टि देना.......!
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