Wednesday, December 27, 2017

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" रोटी की बोटी नोचते चंद हाथ
हड्डी के एक टूकड़े पर टकराते चंद चेहरे "
यह दृश्य  किसी मलिन बस्ति का नहीं
भूखे नंगों की यह वह टोली है
जो बेतहाशा भाग रही है
एक सफेदपोश नकाबधारी के पीछे
महत्वकांक्षाओं के गर्त की ओर।
जिनके लिए बहुत सहज है
बेवजह उठाना, गिराना, पटकना,
संवाद के ये 'बुद्धिजीवी' व्यापारी
एक ऐसा निर्वात पैदा करते हैं
कि आपकी आवाज, आप तक रह जाए
ऐसे में बदलाव के सपने से शुरू
घुटन भरी इस मौत के सफर में
जो दम तोड़ रहा वो केवल एक आवाज नहीं
बल्कि संवाद में आस्था का एक स्तंभ भी है।।।।।

Wednesday, September 6, 2017

हमारे समय का रंग धूसर सा है

न स्याह, न सफेद
सब कुछ धूसर सा है
हमारे समय का रंग धूसर सा है
वही दिखता है
वही बिकता है
वही है दौड़ में अव्वल
स्याह तो अपने कठघरे में खड़ा है
सफेद, कोने में मौन विवश
कि हमारे समय का रंग धूसर है

मत लहराओ परचम भाई
अपने सफेद और स्याह का
इस धूसर से दौर में...
...क्योंकि वही प्रचलित है
वही पसंदीदा है
धूसर हो, तो सब फिदा हैं
चाहेे भेड़चाल ही सही
कि हमारे समय का रंग धूसर है

न कुछ धवल सा
जिसे लपेट गर्व से घूमें
न कुछ काजल सा
जिसे आंखों में सजा लें
बस जो है सो धूसर सा
इसे ही आज का सौभाग्य तिलक समझ
मस्तक पर लगा लें
कि हमारे समय का रंग धूसर है

Monday, June 26, 2017

यायावरी -- कसोल, खीरगंगा

बंद कमरे की उबासी
दफ्तर की नीरस दफ्तरी
दोस्तों की बेरुखी
और शहर की पंकिल राजनीति
इन सब से निराश, हताश मन
खींच ले चला मुझे
अनजान राहों पर, अजनबी घुमंतूओं संग
जो राही थे मुझ जैसे
अपनी-अपनी राहों के
कुछ बेपरवाह से, पर संजीदे

फिर क्या था
अपनी अंतर्बाधाओं को तोड़
कदम जैसे ही आगे बढ़े
पूरी कायनात थी तत्पर
कब हमें अपने अंक में ले ले

नदी की अठखेलियां, बादलों का बरसना
पेड़ों की उंची शाखें
और टूटी पुलिया को भीगते हुए
बेवजह पार करना
कसोल के कस्बे में
प्रकृति अपने सारे तिलस्म खोलती रही
एक-एक कर
और हम लौट चले
धीरे-धीरे अपने बचपने तक
वही हंसी, वही ठिठोली
बेपरवाह, बेहिचक
कुछ कैमरों की आंखों में कैद हुई
तो कुछ स्मृतियों में जा बसी
'मसाला चाय' औ' यहूदी स्वाद संग
जंगली घास के धुंए के छल्लों के बीच

प्रकृति बरसी, झूम कर बरसी
और हम भीगे, भींगते ही रहे
इस बात से अनजान
कि आगे की राहें और भी हैं विष्मयकारी
जहां हमारे सामने होगा
स्रष्टा की सृष्टि का श्रेष्ठ
या फिर हमारा अब तक का श्रेष्ठतम

अनंत शांति की ओर ले जाती
शक्तिस्वरूपा पार्वती नदी की प्रवाह ध्वनि
दुनियावी झंझटों को बौना करती
शिव के आलय हिमालय की उंचाई
इन दोनों के बीच झरनों, सोतों और जंगलों से होकर
पंगडंडियां रचते कुछ स्थानीय
और उन पर संभल कर चलते हम
आंखें अपलक थीं
बेतरतीब बिखरे इस सौंदर्य पर
औ' मन में था आकर्षण खीरगंगा का
लेकिन कदम व्यस्त थे
जिंदगी के कुछ अनोखे फलसफे में

कि हम दिनोंदिन की झंझटों से
इतने ही बेपरवाह क्यों नहीं
इस जीवन यात्रा में इतने ही ध्यानस्थ क्यों नहीं
अपने सहयात्रियों के लिए इतने ही सहज क्यों नहीं
जितने हैं अभी इन फिसलन भरी जोखिम राहों में

लेकिन सबक का अहम अध्याय खुला
शिव की तपस्थली खीरगंगा पहुंच कर
पवित्र कुंड की गरमाहट को अपनी थकान सौंप
तारों भरे अनंत आकाश के नीचे
जलती लकड़ियों के सहारे गुजारी रात ने कहा
समय का बोध हो, या मैं, तुम, यह, वह
सब मिथ्या है,
जो सच है, वह है
एकात्मकता, एकात्मकता, औ' एकात्मकता

और अगले ही पर हम नतमस्तक थे
मणिकर्ण गुरूद्वारे में............।



शाम ढ़लती नहीं

भावनाओं के बवंडर को धकेल
कोशिश है छलांग लगा लूं
उस दरिया में, जिसमें पानी नहीं,
है एक अनंत प्रकाश
पर शाम ढ़लती नहीं
सूरज डूबता नहीं
जिंदगी अटकी पड़ी है न जाने कब से
इस गोधूली बेला में....।

मन का चातक कुलांचे मार
जब थक जाता है
तो मौन आत्मा मुखर हो बोलती है
आ चल आगे बढ़ प्रवेश करें
उस निविड़ अंधकार में
जहां खुलती हैं अंतर्दृष्टि की पलकें
पर शाम ढ़लती नहीं....

मोह मान के धागे सब चिटक रहे हैं
दुनियावी चकाचौंध से हम भटक रहे हैं
आंखें हैं टकटकी लगाए अस्ताचल की ओर
पर मायावी दुनिया ने
नेह का है एक एेसा प्रपंच रचा
जो सुलझते-सुलझते ऐसे उलझ सी जाती है
कि शाम ढ़लती नहीं....

न जाने ये कैसी गोधूली बेला है
चारों प्रहरों से लंबी
है मेरे सामने अपलक खड़ी
भोर की चंद स्मृतियां संजोये
और दोपहर की कुछ आपाधापी
जो नहीं होने देता विस्मृत
इस जीवन बोध से....

यह बोधमय, यह भावमय बवंडर
संभाले नहीं संभलता
पर करें भी तो क्या करें
कि शाम ढ़लती नहीं
सूरज डूबता नहीं
जिंदगी अटकी पड़ी है न जाने कब से
इस गोधूली बेला में....।(मार्च, 2017)