Sunday, March 25, 2018

आजकल...

आजकल..
पहाड़ों की ऊंचाई कम लगती है
नदियों की गहराई छिछली लगती है
रात के अंधेरे दूधिया रोशनी से दिखते हैं
पर दिन के उजाले इतने कम पड़ते हैं
कि कैसे चलें जिंदगी की पगडंडियों पर सकुशल
आजकल..
फरेब औ' साजिशों के जो स्याह पसरे हैं
मिलावटों का जो चलन सा है
झूठ की जो कांव कांव है
दिखावटों का जो बाजार सजा है
उसमें कहां ढ़ूंढें रोजमर्रा की जरूरतें
आजकल..
मन का हाल कुछ यूं है कि
चट्टानों की नोंक उसे समतल लगती है
नदी की रेेत उसे धरातल लगती है
रात के सन्नाटे में वह मुखर हो जाता है
तो दिन के उजाले में कहीं दुबक जा बैठता है
आजकल..
सब कुछ ऐसा ही है
गणित की सरल रेखाओं का ज्ञान बेमानी है
वक्र रेखाएं कर रहीं खूब मनमानी हैं
जोड़-घटाव हासिए पर हैं
गुणा-भाग में ही हैं सब लगे
आजकल..
मौत के बाद क्या होगा पता नहीं
जिंदगी ही है वैतरणी बनी
आजकल..!

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