Wednesday, January 29, 2020

फ़ीनिक्स

अब मरने का इंतजार नहीं मुझे
क्योंकि मैंने स्वयं को फ़ीनिक्स मान लिया है
केवल माना ही नहीं
महसूस कर सकती हूं
मेरे दो पंख, लंबी चोंच, वो उड़ान और वो शक्ति
जल कर राख होना
और फिर सशरीर जी उठना
आत्मा वही पर चोला नया
जिसमें किसी स्याह स्मृतियों के बोझ नहीं
किन्हीं पूर्वाग्रहों का दंश नहीं
कोई प्रतीक्षा नहीं, कोई पश्चाताप नहीं
सब राख हो चुका
जो निखर आया
वो नई उर्जा में लिपटा
आत्मा का तेज है!!

Tuesday, July 31, 2018

तलाश है एक घर की!

एक अदद घर की तलाश है
एक घर...
जहां सुरक्षित हो हमारा मन
हमारे सपने
हमारी उम्मीदें
हमारा अस्तित्व

वैसे तो...
बड़े जतन से ढ़ूंढ़ा था मौजूदा घर
अच्छा है यह...
सुबह सबेरे धूप दस्तक देती है
दरवाजा खोलते ही हवा चुपके से अंदर आती है
बालकनी में खड़े होकर
कभी आसमान से बातें
तो कभी दूर खड़े  दरख्त से
कोई नहीं दखल देता इसमें
बादलों का डेरा न हो तो,
आते जाते चांद भी मुस्करा देता है
दीवारों से बारिश के पानी भी नहीं टपकते
औ' रातों को अंधेरे साये भी नहीं डराते...

पर डर का एक टूकड़ा
फिर भी घूस गया है मेरे अंदर
घर की दीवारें नहीं रोक पाई उसे
नहीं रोक पाई मन को दरकने से
नहीं रोक पाई सपनों को चटकने से
नहीं रोक पाई उम्मीदों को भटकने से
वैसे दीवारें अभी दुरुस्त हैं
खिड़िकयां, दरवाजों पर सांकल चढ़े हैं
उसके बावजूद
सामने खड़ा है अस्तित्व के बिखरने का डर

एक घर ऐसा हो काश,
जहां घुसने न पाए...
'पाश' की पंक्तियों का परचम लहराने वालों की साजिश
सत्ता को आईना दिखाने वालों का अहंकार
मीठे शब्दों की चाशनी में डूबोए खंजर थामे हाथ
वाकई एक घर हो ऐसा...
जहां घुसने न पाए कोई  'नकाबधारी'
तलाश है एक ऐसे घर की!!

Sunday, July 29, 2018

एक मौन हो ऐसा!

एक मौन हो प्रलय सा
जहां से 'मनु' ने शुरू की थी
'चिंता से आनंद' की यात्रा

मौन ही मेरा श्रृंगार हो
मौन ही मेरी शक्ति
मौन ही मेरा मान हो
मौन ही मेरी अभिव्यक्ति

मौन हो ऐसा....

जैसे सृष्टि की हर लय में
एक मौन मुखर है
सूर्य के प्रखर का मौन
चंद्रमा की चांदनी का मौन
एक मौन पूर्णता का
एक मौन अमावस का
धरती के धैर्य का मौन
समंदर की गहराई का मौन
औ' मौन कैलाश शिखर सा
वह मौन...जो तेज है
सृष्टि के हर अलंकार का

शब्द तो श्लोक थे
शब्द थे आशीर्वचन
शब्दों की लोरी थी
तो शब्दों में पिरोया नेह था
शब्द महाकाव्य थे
औ' महाभारत में भी गीता थी

पर शब्द आज कोलाहल हैं
शब्द हैं आज केवल प्रहार बने
शब्द आज विद्रूप हैं
शब्द हैं छिद्रान्वेषण
शब्द आज घृणा हैं
औ' शब्द आज तिरस्कार भी
शब्द तो अनेक हैं
पर नहीं हैं..
सुकून, प्रेम, आनंद के शब्द

इसलिए एक मौन हो मेरे अंदर
ऐसा मौन..
जो है व्याप्त सृष्टि के अंत से अनंत तक!!



Wednesday, May 9, 2018

मेरा बनारस !

शिव की नगरी बनारस सा
मेरे अंदर भी बसा है इक बनारस

अखड़, अलमस्त, प्राचीन, निरंतर
आरती, दीप, सृजन,  विसर्जन
अप्रकट, आकर्षक, निश्चिंत, कालातीत
मेरे अंदर भी है इक बनारस
ओंकार के आकार का इक बनारस

संस्कार, संसार, भोक्ता, भक्ति
देवालय, सृजनालय, रंगालय, विद्यालय
अर्चना, मानस, नृत्य, ज्ञान
सुर, लय. ताल, बोध
मेरे अंदर भी है इक बनारस
गंगा की धुन में रचा-बसा बनारस

प्रवाह, डुबकी, नाव, केवट
उदयाचल, अस्ताचल, प्रातः, संध्या
धर्म, कर्म, आस्था, समर्पण
साध्य, साधना, मुक्ति, मोक्ष
आदि-अनादि के बोध सा बनारस
मेरे अंदर भी है इक बनारस

हा, चेतना के स्पर्श से अभी दूर
बहुत दूर है मेरा बनारस
पर अनहद नाद सा होगा मेरा बनारस
विश्वनाथ का नगर मेरा बनारस...!

Sunday, March 25, 2018

आजकल...

आजकल..
पहाड़ों की ऊंचाई कम लगती है
नदियों की गहराई छिछली लगती है
रात के अंधेरे दूधिया रोशनी से दिखते हैं
पर दिन के उजाले इतने कम पड़ते हैं
कि कैसे चलें जिंदगी की पगडंडियों पर सकुशल
आजकल..
फरेब औ' साजिशों के जो स्याह पसरे हैं
मिलावटों का जो चलन सा है
झूठ की जो कांव कांव है
दिखावटों का जो बाजार सजा है
उसमें कहां ढ़ूंढें रोजमर्रा की जरूरतें
आजकल..
मन का हाल कुछ यूं है कि
चट्टानों की नोंक उसे समतल लगती है
नदी की रेेत उसे धरातल लगती है
रात के सन्नाटे में वह मुखर हो जाता है
तो दिन के उजाले में कहीं दुबक जा बैठता है
आजकल..
सब कुछ ऐसा ही है
गणित की सरल रेखाओं का ज्ञान बेमानी है
वक्र रेखाएं कर रहीं खूब मनमानी हैं
जोड़-घटाव हासिए पर हैं
गुणा-भाग में ही हैं सब लगे
आजकल..
मौत के बाद क्या होगा पता नहीं
जिंदगी ही है वैतरणी बनी
आजकल..!

Wednesday, December 27, 2017

...............

" रोटी की बोटी नोचते चंद हाथ
हड्डी के एक टूकड़े पर टकराते चंद चेहरे "
यह दृश्य  किसी मलिन बस्ति का नहीं
भूखे नंगों की यह वह टोली है
जो बेतहाशा भाग रही है
एक सफेदपोश नकाबधारी के पीछे
महत्वकांक्षाओं के गर्त की ओर।
जिनके लिए बहुत सहज है
बेवजह उठाना, गिराना, पटकना,
संवाद के ये 'बुद्धिजीवी' व्यापारी
एक ऐसा निर्वात पैदा करते हैं
कि आपकी आवाज, आप तक रह जाए
ऐसे में बदलाव के सपने से शुरू
घुटन भरी इस मौत के सफर में
जो दम तोड़ रहा वो केवल एक आवाज नहीं
बल्कि संवाद में आस्था का एक स्तंभ भी है।।।।।

Wednesday, September 6, 2017

हमारे समय का रंग धूसर सा है

न स्याह, न सफेद
सब कुछ धूसर सा है
हमारे समय का रंग धूसर सा है
वही दिखता है
वही बिकता है
वही है दौड़ में अव्वल
स्याह तो अपने कठघरे में खड़ा है
सफेद, कोने में मौन विवश
कि हमारे समय का रंग धूसर है

मत लहराओ परचम भाई
अपने सफेद और स्याह का
इस धूसर से दौर में...
...क्योंकि वही प्रचलित है
वही पसंदीदा है
धूसर हो, तो सब फिदा हैं
चाहेे भेड़चाल ही सही
कि हमारे समय का रंग धूसर है

न कुछ धवल सा
जिसे लपेट गर्व से घूमें
न कुछ काजल सा
जिसे आंखों में सजा लें
बस जो है सो धूसर सा
इसे ही आज का सौभाग्य तिलक समझ
मस्तक पर लगा लें
कि हमारे समय का रंग धूसर है