Saturday, December 28, 2013

प्रार्थना-2

कितने वसंत बीत चुके
तुम आते रहे
पर मैंने नहीं पहचाना.....

अनगिनत रुपों में
अनगिनत छटाओं में
मौसम के हर एक करवट के साथ
तुम आते रहे
पर मैंने नहीं पहचाना......

तुम आते रहे मेरी हर एक सोच के साथ
तुम आते रहे मेरी कामनाओं में
तुम आते रहे मेरी व्यथाओं में
पर मैने नहीं पहचाना......

आज भी तुम आते हो
मेरे सपनों में
कई-कई संकेतों में
कुछ प्यारे-प्यारे चेहरों में
और सबसे बढ़कर उनमें
पर देर हो जाती है
जब तक मैं पहचान पाऊं तुम्हें......

तभी तो मन व्याकुल सा है
और है एक बेचैनी
नहीं मिट पाती वह अंतर्वेदना
तुम्हारे होते हुए भी......

पहचान पाऊं तुम्हें मैं,
तत्क्षण ही
प्रभु मेरे,
मुझे वह अंतर्दृष्टि देना.......!

प्रार्थना-1

हृद्य को वेधता यह मौन
कभी तो मुखर होगा
सांसो के लय को छेड़ता यह बोझ
कभी तो सहज होगा
बेड़ियों में जकड़ी यह काया
कभी तो मुक्त होगी, प्रभु मेरे....!

हवाओं में बिखरा यह मौन
कभी तो मुखर होगा.... !

दूर जाते कदमों की आहट
कभी तो थमेगी
मुंडेर पर बैठी गौरेया
कभी तो अंदर आएगी
बादलों की आंख मिचौली के बीच
कभी तो सूरज निकलेगा, प्रभु मेरे.... !

लिहाफ की तरह लिपटा यह मौन
कभी तो मुखर होगा..... !

हृदय को वेधता यह मौन
कभी तो मुखर होगा, प्रभु मेरे..... !

Saturday, October 19, 2013

तलाश.... !


हम इतने सयाने क्यों हैं
हम थोड़े से पागल क्यों नहीं....?

क्यों हैं हम हिस्सा
इस सयानी भीड़ का...
जो सयानेपन में हर वक्त को तोलती है,
नफ़ा-नुकसान की तराजू पर।
समझ के दायरे से परखती है,
सीढ़ियां चढ़ रही हवाओं के रुख को।

हासिल क्या होता है
एक बेचैनी....
पर यह बेचैनी वह नहीं
जिसमें कुछ नूतन का आग़ाज हो...
जो किसी सृजन का आधार हो
यह तो वह बेचैनी है
जिसमें मन तड़पता है
आत्मा रोती है.... !

हम इतने सयाने क्यों
कि जिंदगी की सोंधी गंध भूल जाएं
भूल जाएं कि....
हमारे अंदर का बच्चा,
अभी भी तैराना चाहता है
बारिश के पानी में काग़ज की कश्ती।
हमारे अंदर की मासूमियत,
अब भी दौड़ना चाहती है
बेतरतीब नंगे पांव
ओस से सने दूब घास पर।
पर हमारा सयानापन हमें रोकता है... !

हम इतने सयाने क्यों हैं..
हम थोड़े से पागल क्यों नहीं.... ?

क्यों हमें लगता है चांद सारी रात
अंबर के आगोश में रहता है
अगर समझ को परे धकेल
किसी एक रात
चुपके से खिड़की पर बैठ
इंतजार किया होता तो
जरूर दिखता
चांद धरती पर उतरते हुए... !

क्यों हमें लगता है..
हम मजबूर हैं,
हवाओं के रुख के साथ चलने को।
अगर कुंठित समझ को छिटक,
किसी एक रात
चुरा लाते उन परियों के पंख,
जो तैरती हैं एक शिशु की बंद आंखों में
खुली किताबों में....
तो जरूर उड़ पाते हवाओं के विपरीत।
क्योंकि, शिशु की मासूम निडरता
है दुनिया की सबसे बड़ी ताकत.... !

बस इसे समझने के लिए चाहिए
थोड़ा सा पागलपन
मुझे तलाश है 
उस पागलपन का.... !

उसकी अंतर्वेदना मेरी कलम से..........

मुझे मालूम है पापा
आप आओगे
पर कब आओगे
इतना बता दो....!

आप चले गए हो तो
ऐसा लगता है
जिंदगी से मासूमियत चली गई
आप चले गए हो तो
ऐसा लगता है
वह बच्ची भी चली गई
जो मेरे अंदर बसती थी.... !

पापा, मुझे वक्त ने
बहुत बड़ा बना दिया है
क्योंकि, मेरे अंदर की बच्ची
चली गई आपके साथ
अब शेष है तो केवल
आपके कंधे की जिम्मेवारियां
जो मेरे कंधे पर आ पड़ी हैं
पर मुझे कोई शिकायत नहीं
बस आप आ जाओ
और मुझे मेरा बचपन लौटा दो
फिर सब समेट लुंगी
हंसते-गाते..... !

मां तो आपसे शिकायत भी करती हैं
और रुठती भी हैं
पर मैं तो कुछ भी नहीं कहती
बस मौन याद करती हूं
एकटक राह तकती हूं
इसलिए, पापा अबकी आप
सीधे मेरे पास ही आना
मेरे पास ही रहना
मां फिर भी खुश होंगी.... !

पापा, मेरे अंदर एक दरिया है
जिसमें तैरता है आपकी यादों का कलश
कभी उमड़ता है,
कभी घुमड़ता है,
पर हर जतन कर संभालती हूं
कहीं छलक न जाए
पर जब आप आओगे
बह जाने दूंगी इसे
और मांगूंगी हिसाब
उन पलों का जब आप नहीं थे
खोलुंगी डाटों के पोटली की सौगात
जो आपकी ही दी हुई है
और पुछुंगी,
क्यों की गलती जाने की.... !

पापा, मुझे मालूम है
इन यादों के अमूर्त रुप में
आप यहीं आस-पास हो
मुझे मालूम है
आप सदेह भी आओगे
बस इतना बता दो
कब आओगे.... !

पापा, मैं मेरे मन की बात
किसी से नहीं कहती
डर, लगता है
कहीं लोग मुझे पागल न समझें
पर आप ही बताओ
किसी का इंतजार क्या पागलपन है
और फिर मुझे तो मालूम है
आप आओगे
बस इतना बता दो
कब आओगे.... ! (एक दोस्त के लिए)

Thursday, October 3, 2013

समय

क्या हम अपने माता-पिता की संतान हैं
यदि हां, तो.....
उनके जीवन की सहजता का विस्तार
हम तक क्यों नहीं
उनके पलों के सुकून की छाया
हम पर क्यों नहीं

पर शायद ऐसा नहीं है
यह कुछ वैसा है
जैसा खलिल जिब्रान ने कहा था......
हर शिशु है परिणाम..
जीवन के स्वयं के प्रति चाहत की
वह जीवन, जो समय के गर्भ में पलता है
वह जीवन, जो समय की परछाइयां ढ़ोता है

हम समय के जटिलताओं की संतान हैं
हम विरोधाभासों के परिणाम हैं
हम विडंबनाओं की कहानी हैं

विडंबना यह कि
जटिलताओं में भी हमें सरल रहना है
विडंबना यह कि
विरोधाभासों में भी हमें अडिग रहना है
विडंबना यह कि
जीवन अगर एक नदी है
तो हमें तैरना है, पर धारा के विपरीत

शायद यही सच है हमारा
यही सच है मेरा
यही सच है तुम्हारा

शायद यह सच इसलिए भी है कि
हममें साहस है इस सच के सामना का

और जब साहस है तो उदासी किस बात की.....!

Saturday, September 21, 2013

रोबोट

मेरे अनुज याद आता है
तुम्हारा वह सम्बोधन
प्यार से कभी रोबोट पुकारना
तो कभी सिर्फ रोबो

मेरे अनुज याद आता है
हमारा वह बचपन
कभी लड़न-झगड़ना
तो कभी छिनना-झपटना
कभी वह रुठना-मनाना
सब याद आता है
पर बहुत याद आता है
तुम्हारा वह सम्बोधन

क्योंकि,
वक्त की रफ्तार में
वह सम्बोधन तो गुम हो गया है
पर इसे विडंबना कहुं या क्या
जिंदगी ने मुझे रोबोट ही समझ लिया
जब चाहा स्विच ऑन किया
जब चाहा स्विच ऑफ किया
और मैं चिखती रह गई
मैं रोबोट नहीं इंसान हूं

मेरे अनुज वाकई याद आता है
तुम्हारा रोबोट बुलाना
पर जिंदगी ने मुझे रोबोट समझा
शिकायत है इस बात की
बहुत शिकायत है इस जिंदगी से
बहुत-बहुत शिकायत है किसी से!...........................