Monday, June 26, 2017

यायावरी -- कसोल, खीरगंगा

बंद कमरे की उबासी
दफ्तर की नीरस दफ्तरी
दोस्तों की बेरुखी
और शहर की पंकिल राजनीति
इन सब से निराश, हताश मन
खींच ले चला मुझे
अनजान राहों पर, अजनबी घुमंतूओं संग
जो राही थे मुझ जैसे
अपनी-अपनी राहों के
कुछ बेपरवाह से, पर संजीदे

फिर क्या था
अपनी अंतर्बाधाओं को तोड़
कदम जैसे ही आगे बढ़े
पूरी कायनात थी तत्पर
कब हमें अपने अंक में ले ले

नदी की अठखेलियां, बादलों का बरसना
पेड़ों की उंची शाखें
और टूटी पुलिया को भीगते हुए
बेवजह पार करना
कसोल के कस्बे में
प्रकृति अपने सारे तिलस्म खोलती रही
एक-एक कर
और हम लौट चले
धीरे-धीरे अपने बचपने तक
वही हंसी, वही ठिठोली
बेपरवाह, बेहिचक
कुछ कैमरों की आंखों में कैद हुई
तो कुछ स्मृतियों में जा बसी
'मसाला चाय' औ' यहूदी स्वाद संग
जंगली घास के धुंए के छल्लों के बीच

प्रकृति बरसी, झूम कर बरसी
और हम भीगे, भींगते ही रहे
इस बात से अनजान
कि आगे की राहें और भी हैं विष्मयकारी
जहां हमारे सामने होगा
स्रष्टा की सृष्टि का श्रेष्ठ
या फिर हमारा अब तक का श्रेष्ठतम

अनंत शांति की ओर ले जाती
शक्तिस्वरूपा पार्वती नदी की प्रवाह ध्वनि
दुनियावी झंझटों को बौना करती
शिव के आलय हिमालय की उंचाई
इन दोनों के बीच झरनों, सोतों और जंगलों से होकर
पंगडंडियां रचते कुछ स्थानीय
और उन पर संभल कर चलते हम
आंखें अपलक थीं
बेतरतीब बिखरे इस सौंदर्य पर
औ' मन में था आकर्षण खीरगंगा का
लेकिन कदम व्यस्त थे
जिंदगी के कुछ अनोखे फलसफे में

कि हम दिनोंदिन की झंझटों से
इतने ही बेपरवाह क्यों नहीं
इस जीवन यात्रा में इतने ही ध्यानस्थ क्यों नहीं
अपने सहयात्रियों के लिए इतने ही सहज क्यों नहीं
जितने हैं अभी इन फिसलन भरी जोखिम राहों में

लेकिन सबक का अहम अध्याय खुला
शिव की तपस्थली खीरगंगा पहुंच कर
पवित्र कुंड की गरमाहट को अपनी थकान सौंप
तारों भरे अनंत आकाश के नीचे
जलती लकड़ियों के सहारे गुजारी रात ने कहा
समय का बोध हो, या मैं, तुम, यह, वह
सब मिथ्या है,
जो सच है, वह है
एकात्मकता, एकात्मकता, औ' एकात्मकता

और अगले ही पर हम नतमस्तक थे
मणिकर्ण गुरूद्वारे में............।



शाम ढ़लती नहीं

भावनाओं के बवंडर को धकेल
कोशिश है छलांग लगा लूं
उस दरिया में, जिसमें पानी नहीं,
है एक अनंत प्रकाश
पर शाम ढ़लती नहीं
सूरज डूबता नहीं
जिंदगी अटकी पड़ी है न जाने कब से
इस गोधूली बेला में....।

मन का चातक कुलांचे मार
जब थक जाता है
तो मौन आत्मा मुखर हो बोलती है
आ चल आगे बढ़ प्रवेश करें
उस निविड़ अंधकार में
जहां खुलती हैं अंतर्दृष्टि की पलकें
पर शाम ढ़लती नहीं....

मोह मान के धागे सब चिटक रहे हैं
दुनियावी चकाचौंध से हम भटक रहे हैं
आंखें हैं टकटकी लगाए अस्ताचल की ओर
पर मायावी दुनिया ने
नेह का है एक एेसा प्रपंच रचा
जो सुलझते-सुलझते ऐसे उलझ सी जाती है
कि शाम ढ़लती नहीं....

न जाने ये कैसी गोधूली बेला है
चारों प्रहरों से लंबी
है मेरे सामने अपलक खड़ी
भोर की चंद स्मृतियां संजोये
और दोपहर की कुछ आपाधापी
जो नहीं होने देता विस्मृत
इस जीवन बोध से....

यह बोधमय, यह भावमय बवंडर
संभाले नहीं संभलता
पर करें भी तो क्या करें
कि शाम ढ़लती नहीं
सूरज डूबता नहीं
जिंदगी अटकी पड़ी है न जाने कब से
इस गोधूली बेला में....।(मार्च, 2017)

Monday, February 16, 2015

यह कौन सा दौर है....


यह कौन सा दौर है दोस्त
यह चल रही कैसी बयार है
वो शख्स जो जुदा सा लगता था
भीड़ का एक चेहरा बन तैयार है
 
वो मेरा दोस्त नहीं था
पर किसी से तो किया था
दोस्ती का मौन वादा उसने
वो मेरा हमराज नहीँ था
पर किसी के अँधेरे पलों को
किया था साझा उसने
लेकिन फिर क्या हुआ कि
मोड़ आते ही मुँह फेर चल पड़ा
नए चेहरों की तलाश में
यह कौन सा दौर है दोस्त
यह चल रही कैसी बयार है...
 
हम यह नहीं कहते कि
हमने दुनिया की बगिया में
फूलों के मेले लगाये हैं
पर इसकि क्यारियों में
बूंदों में ही सही
हम नहीं भूले पानी डालना
फिर क्यों भूल गए वो लोग
जो कभी किया करते थे दावा
अपना सा होने का
यह कौन सा दौर है दोस्त 
यह चल रही कैसी बयार है....
 
तुम कहते हो
वो चल रहे दौर के मुताबिक़ हैं
हम ही ढीठ हैं जो ढ़ो रहे
इस दौर में भी उस दौर को
पर क्या
ईश्वर भी ढीठ नहीं
जो अब भी गढ़ रहा
पुराने सांचे में हम जैसे चेहरे
जिनके लिए
दुनिया का यह मुकाम
पहचान से है इतना परे
कि लगता है क्यों कर जिएं?
यह कौन सा दौर है दोस्त
यह चल रही कैसी बयार है
वो शख्स जो जुदा सा लगता था
भीड़ का एक चेहरा बन तैयार है.......।

Saturday, January 24, 2015

रास्तों की दरकार है...

मंजिलों की आस अब कहाँ
बस रास्ते मिलते जाएँ
कि मिलता रहे साथ
सांसों की रफ़्तार को
समय के रेत-कण से भरी मुट्ठी
खाली न हो एक ही जगह
मिलता रहे उसे अवसर
आड़ी-तिरछी लकीरें खींचने को

मंजिलों की तलाश अब कहाँ
बस रास्तों की दरकार है
कि सफ़र का कारवां चलता रहे
भोर का सूरज शर्मिंदा न हो
दीवार पर टंगी कैलेंडर बेमानी न लगे
क्योँकि,
जिसकी आस थी, तलाश थी
वह तो मेरा भ्रम था
उस एक भ्रम में
रेत को पानी समझ पीछा किया
उस भ्रम की कसक अभी भी है
उस की तड़प अब भी है
पर कोई आस नहीं,
कोई तलाश नहीं..।

एक दास्ताँ

ज़िन्दगी नाराज़ क्यों न हो
हमने बांधा इसे राजपथ के दायरे में
रायसीना हिल्स की ओर जाती
चौड़ी सडक़ों की परिधियों से....
फिर जिंदगी नाराज़ क्यों न हो
जाना इसे केवल
सत्ता की गलियारों में
तथाकथित रूप से
देशहित में निर्णय लेने वाले
मंत्रणागृहों की वीथियों में......
हमने ढूंढा इसे केवल
कुर्सियों की निगरानी करती
कमरों की चौखटों पर
वहां से निकलती फाइलों में
जिसमें कहते है कि
देश की तक़दीर है उकेरी
श्वेत-श्याम में है कैद
हमारा ही कथित ' स्वर्णिम' भविष्य
हमारी नजरें इससे परे नहीं झांकती
आखिर हमसे नाराज़ क्यों न हो ज़िन्दगी....।

हमने समझा ही नहीं
कि हमारी दृष्टि सीमा से परे भी
ज़िन्दगी का है एक व्यापक फलक
राजपथ से मीलों दूर
ऊबर-खाबड़ पगडंडियों पर
फैली है अलमस्त सी ज़िन्दगी
टूटे किनारों वाले पोखरे से निकलकर
आती है ज़िन्दगी भोर होते ही
खेतों-खलिहानो, दलानों, ढ़लानों पर
ऊधम मचा
पास वाली नदी में सोने चली जाती है
शाम की चादर तान ज़िन्दगी
हमसे अपरचित यह ज़िन्दगी
शामों-शहर के साथ आँखमिचौली खेलती
शर्मीली-निर्दोष सी ज़िन्दगी
जो सच्चे मायने में हमारी तक़दीर गढ़ रही होती है
हमने इसे कभी छुआ तो जरूर
पर अंक में नहीं भरा
फिर हमसे नाराज़ क्यों न हो ज़िन्दगी

कहाँ कभी हम बैठे ज़िन्दगी के साथ
कस्बे की किसी दुकान पर चाय पीने
कॉफ़ी हाउस में ही ढूंढते रहे
साथ और स्वाद का एहसास
बचपन के दायरे को पीछे क्या छोड़ा
ज़िन्दगी को भी छोड़ आये
मोहल्ले के चाचा-चाचियों के पास
जबकि वहीँ से तय होती है राजपथ की किस्मत
फिर हमसे नाराज क्यों न हो ज़िन्दगी...।

कहाँ हम हमजोली बने ज़िन्दगी की
किसी पहाड़ी ढ़लान की उतार- चढाव पर
महानगरी भेड़चाल में रमे रहे
पर नहीं सामना किया कभी
पथरीली रास्तों पर भेड़ों के झुण्ड को हांकते
गरेड़ियों के जद्दोजहद का
जो बुनते हैं हमारी ठंडी रातों की गर्म दास्तां
कहाँ हमने हाथ थामा ज़िन्दगी का
किसी समंदर के रेतीले तट पर
कच्ची मछलियों की अजीब सी खुशबू से नहायी
मछुआरों की बस्तियों की कहानी कब सुनी
जिनकी मेहनत परोसी जाती हमारी थालियों में
फिर हमसे नाराज़ क्यों न हो ज़िन्दगी....।

हम खोये से घूमते रहे राजपथ पर
खुद से बेख़बर, खबरनवीस बन कर
सत्ता के रंगमंच पर चल रहे नाटक का
उठाते रहे लुफ्त
दर्शक दीर्घा की अंतिम क़तार का हिस्सा बन
जेब में पड़ी चंद रेचगियों से बेपरवाह हम...
रंगमंच पर उछाले जा रहे कीचड़
हम तक भी आते रहे, ढ़ेर बनाते रहे
पर हम तो बेसुध
खोये से घूमते रहे राजपथ पर
तभी एक खबर आती है
कीचड़ की उस ढेर से
हमसे टकराती है और कहती है
राजपथ पर घूमना है वर्जित
यह क्या बात हुई,
इससे इतर तो ज़िन्दगी देखी नहीं
अब उसे ढूंढे कहाँ .....

उन पगडंडियों पर अलमस्त फैली
ज़िन्दगी का एहसास तो हमें भी था
पर हम तो खोये से घूमते रहे राजपथ पर
खुद से बेख़बर, खबरनवीस बन कर
न खुद की तलाश की
न ज़िन्दगी को ढूंढा
दूर से आती सत्ता की गंध की बेसुधियों में था होश कहाँ
फिर हमसे नाराज क्यों न हो ज़िन्दगी
दोष जो है विस्मृति का ..
लौट चलें उन पगडंडियों पर
शायद वही निवारण हो इस दोष का....।












क्या ज़िन्दगी है..!

वाह क्या ज़िन्दगी है....
रुई से भी लगती हल्की है

न छत है, न ज़मीं
न दर है, न दीवार
न घर है, न द्वार
न शहर है, न शाम
पर है बड़ा आराम ...
वाह क्या ज़िन्दगी है....
फूल से भी लगती हल्की है

न कुछ खोने का भय है
न कोई आस
न उम्मीदोँ का बोझ है
न कोई लड़ाई
न कोई शिकवा, न गुंजाइश
बस एक लय है, ताल है
एक सतत् प्रवाह है
वाह क्या ज़िन्दगी है...
हवा से भी लगती हल्की है

बस एक छोटी सी तिज़ोरी है
जिसमें तुम हो, वे हैं
और हैं कुछ यादें
कुछ मीठे-मीठे रिश्ते
कुछ मिठी-मिठी बातें
एक डोरी है एहसासों की
एक मोती स्वाभिमान की
बस है वही एक नन्ही तिज़ोरी
जो है मेरा गुरुर , मेरा सुकून
औ' उन सबसे अनमोल, जो नहीं हैं
वाह, क्या जिंदगी है.....।

Monday, January 5, 2015

मुझे उड़ने दो..।

बंधन में मत बाँधो...
मुझे उड़ने दो।।
तुम्हारा बंधन बहुत ही प्यारा है
मेरी भी आँखों का तारा है
पर मेरा जीवन पथ है कुछ और
उसमे रमने दो।।
बंधन में मत बाधो, मुझे उड़ने दो।।
किसी टहनी पर बसेरा था
उम्मीदों का घेरा था
उसके आने की आस थी
हर आहाट में बसी साँस थी
पर जो निकला वो आंधी था
तिनकों को बिखेर गया, बिनने दो।।
बंधन में मत बाँधो, मुझे उड़ने दो।।
मेरे अंदर कुछ चटक गया है
अपने वजूद का कोई टुकड़ा छिटक गया है
कुछ अपना सा बिछड़ गया है
मेरा स्व अब अधूरा लगता है
उस आधे को ढूंढ़ने दो।।
बंधन में मत बंधो, मुझे उड़ने दो।।
एक मुट्ठी जमीन थी, एक मुट्ठी था आसमान
यही था मेरा वितान
बस इस पात से उस पात डेरा था
पर तक़दीर की रेखाओं के लिए
तंग यह घेरा था
बहुत कुछ अनदेखा बुला रहा है
इन्द्रियों से भी परे कोई रहस्य, रीझा रहा है
इस अज्ञात के आकर्षण को, आलिंगन में भरने दो।।
बंधन में मत बांधो, मुझे उड़ने दो।।
कौन जाने कोई पूर्णता वहां, टकटकी लगाये हो
मेरे वजूद का टुकड़ा, उसकी पैरहन ओढ़े बैठा हो
कौन जाने वो वहीँ को हो निकल पड़ा
मत रोको , मुझे उस राह को चलने दो
जो है शायद, जीवन पथ मेरा।।
बंधन में मत बांधो, मुझे उड़ने दो।।
माना कि वो बंधन बहुत ही प्यारा है
मेरी भी आँखों का तारा है
पर मेरा जीवन पथ है कुछ और
उसमेँ रमने दो।।
बंधन में मत बांधो, मुझे उड़ने दो।।