दफ्तर की नीरस दफ्तरी
दोस्तों की बेरुखी
और शहर की पंकिल राजनीति
इन सब से निराश, हताश मन
खींच ले चला मुझे
अनजान राहों पर, अजनबी घुमंतूओं संग
जो राही थे मुझ जैसे
अपनी-अपनी राहों के
कुछ बेपरवाह से, पर संजीदे
फिर क्या था
अपनी अंतर्बाधाओं को तोड़
कदम जैसे ही आगे बढ़े
पूरी कायनात थी तत्पर
कब हमें अपने अंक में ले ले
नदी की अठखेलियां, बादलों का बरसना
पेड़ों की उंची शाखें
और टूटी पुलिया को भीगते हुए
बेवजह पार करना
कसोल के कस्बे में
प्रकृति अपने सारे तिलस्म खोलती रही
एक-एक कर
और हम लौट चले
धीरे-धीरे अपने बचपने तक
वही हंसी, वही ठिठोली
बेपरवाह, बेहिचक
कुछ कैमरों की आंखों में कैद हुई
तो कुछ स्मृतियों में जा बसी
'मसाला चाय' औ' यहूदी स्वाद संग
जंगली घास के धुंए के छल्लों के बीच
प्रकृति बरसी, झूम कर बरसी
और हम भीगे, भींगते ही रहे
इस बात से अनजान
कि आगे की राहें और भी हैं विष्मयकारी
जहां हमारे सामने होगा
स्रष्टा की सृष्टि का श्रेष्ठ
या फिर हमारा अब तक का श्रेष्ठतम
अनंत शांति की ओर ले जाती
शक्तिस्वरूपा पार्वती नदी की प्रवाह ध्वनि
दुनियावी झंझटों को बौना करती
शिव के आलय हिमालय की उंचाई
इन दोनों के बीच झरनों, सोतों और जंगलों से होकर
पंगडंडियां रचते कुछ स्थानीय
और उन पर संभल कर चलते हम
आंखें अपलक थीं
बेतरतीब बिखरे इस सौंदर्य पर
औ' मन में था आकर्षण खीरगंगा का
लेकिन कदम व्यस्त थे
जिंदगी के कुछ अनोखे फलसफे में
कि हम दिनोंदिन की झंझटों से
इतने ही बेपरवाह क्यों नहीं
इस जीवन यात्रा में इतने ही ध्यानस्थ क्यों नहीं
अपने सहयात्रियों के लिए इतने ही सहज क्यों नहीं
जितने हैं अभी इन फिसलन भरी जोखिम राहों में
लेकिन सबक का अहम अध्याय खुला
शिव की तपस्थली खीरगंगा पहुंच कर
पवित्र कुंड की गरमाहट को अपनी थकान सौंप
तारों भरे अनंत आकाश के नीचे
जलती लकड़ियों के सहारे गुजारी रात ने कहा
समय का बोध हो, या मैं, तुम, यह, वह
सब मिथ्या है,
जो सच है, वह है
एकात्मकता, एकात्मकता, औ' एकात्मकता
और अगले ही पर हम नतमस्तक थे
मणिकर्ण गुरूद्वारे में............।