ज़िन्दगी नाराज़ क्यों न हो
हमने बांधा इसे राजपथ के दायरे में
रायसीना हिल्स की ओर जाती
चौड़ी सडक़ों की परिधियों से....
फिर जिंदगी नाराज़ क्यों न हो
जाना इसे केवल
सत्ता की गलियारों में
तथाकथित रूप से
देशहित में निर्णय लेने वाले
मंत्रणागृहों की वीथियों में......
हमने ढूंढा इसे केवल
कुर्सियों की निगरानी करती
कमरों की चौखटों पर
वहां से निकलती फाइलों में
जिसमें कहते है कि
देश की तक़दीर है उकेरी
श्वेत-श्याम में है कैद
हमारा ही कथित ' स्वर्णिम' भविष्य
हमारी नजरें इससे परे नहीं झांकती
आखिर हमसे नाराज़ क्यों न हो ज़िन्दगी....।
हमने समझा ही नहीं
कि हमारी दृष्टि सीमा से परे भी
ज़िन्दगी का है एक व्यापक फलक
राजपथ से मीलों दूर
ऊबर-खाबड़ पगडंडियों पर
फैली है अलमस्त सी ज़िन्दगी
टूटे किनारों वाले पोखरे से निकलकर
आती है ज़िन्दगी भोर होते ही
खेतों-खलिहानो, दलानों, ढ़लानों पर
ऊधम मचा
पास वाली नदी में सोने चली जाती है
शाम की चादर तान ज़िन्दगी
हमसे अपरचित यह ज़िन्दगी
शामों-शहर के साथ आँखमिचौली खेलती
शर्मीली-निर्दोष सी ज़िन्दगी
जो सच्चे मायने में हमारी तक़दीर गढ़ रही होती है
हमने इसे कभी छुआ तो जरूर
पर अंक में नहीं भरा
फिर हमसे नाराज़ क्यों न हो ज़िन्दगी
कहाँ कभी हम बैठे ज़िन्दगी के साथ
कस्बे की किसी दुकान पर चाय पीने
कॉफ़ी हाउस में ही ढूंढते रहे
साथ और स्वाद का एहसास
बचपन के दायरे को पीछे क्या छोड़ा
ज़िन्दगी को भी छोड़ आये
मोहल्ले के चाचा-चाचियों के पास
जबकि वहीँ से तय होती है राजपथ की किस्मत
फिर हमसे नाराज क्यों न हो ज़िन्दगी...।
कहाँ हम हमजोली बने ज़िन्दगी की
किसी पहाड़ी ढ़लान की उतार- चढाव पर
महानगरी भेड़चाल में रमे रहे
पर नहीं सामना किया कभी
पथरीली रास्तों पर भेड़ों के झुण्ड को हांकते
गरेड़ियों के जद्दोजहद का
जो बुनते हैं हमारी ठंडी रातों की गर्म दास्तां
कहाँ हमने हाथ थामा ज़िन्दगी का
किसी समंदर के रेतीले तट पर
कच्ची मछलियों की अजीब सी खुशबू से नहायी
मछुआरों की बस्तियों की कहानी कब सुनी
जिनकी मेहनत परोसी जाती हमारी थालियों में
फिर हमसे नाराज़ क्यों न हो ज़िन्दगी....।
हम खोये से घूमते रहे राजपथ पर
खुद से बेख़बर, खबरनवीस बन कर
सत्ता के रंगमंच पर चल रहे नाटक का
उठाते रहे लुफ्त
दर्शक दीर्घा की अंतिम क़तार का हिस्सा बन
जेब में पड़ी चंद रेचगियों से बेपरवाह हम...
रंगमंच पर उछाले जा रहे कीचड़
हम तक भी आते रहे, ढ़ेर बनाते रहे
पर हम तो बेसुध
खोये से घूमते रहे राजपथ पर
तभी एक खबर आती है
कीचड़ की उस ढेर से
हमसे टकराती है और कहती है
राजपथ पर घूमना है वर्जित
यह क्या बात हुई,
इससे इतर तो ज़िन्दगी देखी नहीं
अब उसे ढूंढे कहाँ .....
उन पगडंडियों पर अलमस्त फैली
ज़िन्दगी का एहसास तो हमें भी था
पर हम तो खोये से घूमते रहे राजपथ पर
खुद से बेख़बर, खबरनवीस बन कर
न खुद की तलाश की
न ज़िन्दगी को ढूंढा
दूर से आती सत्ता की गंध की बेसुधियों में था होश कहाँ
फिर हमसे नाराज क्यों न हो ज़िन्दगी
दोष जो है विस्मृति का ..
लौट चलें उन पगडंडियों पर
शायद वही निवारण हो इस दोष का....।
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